Friday, February 18, 2011

सोचना जरूरी है(२)
हमने सोचने की जरूरत पर बल दिया है, क्योंकि हमारा मानना है क़ि किसी ज़िंदा आदमी के लिए, किसी ज़िंदा कौम के लिए सोचना निहायत जरूरी है. सोचने से हमारा आशय हलके-फुल्के, फौरी या सतही ढंग से सोचने से नहीं है. हमारे अन्तःस्थल  के गहनतम बिंदु पर दिल और दिमाग दोनों एक जगह आकर मिलते हैं और यहाँ से जो निर्णय लिया जाता है उसके गलत होने की संभावना बहुत कम रहती है. सोचने के मामले में सिर्फ दिल या सिर्फ दिमाग से काम लेने पर फैसले हमेशा गलत लिए जायेंगे. हम दिल और दिमाग के इसी अंतरतम स्थल से सोचने की बात कर रहे हैं. 
अब सवाल यह  है क़ि सोचा क्या जाय . तो चलिए शुरू करने के लिए हम लोकतंत्र  पर सोचते हैं. लोकतंत्र पर सोचना इसलिए भी मौजू रहेगा, क्योंकि हमारे नेता बात-बात पर, हर बात पर लोकतंत्र की दुहाई देते हैं. पिछले पचास वर्षों में शायद एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब हमारा महान लोकतंत्र संकट में न रहा हो. अगर सरकार आपकी है तो हमें लोकतंत्र पर संकट मंडराता दिखाई देने लगता है और अगर सरकार हमारी है तो आपको लोकतंत्र संकट में दिखाई देने लगता है. लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा की बात की जाती है, लोकतांत्रिक मूल्य और परम्परा की बात की जाती है. 
लगता है लोकतंत्र से अधिक महत्वपूर्ण कुछ और है ही नहीं. चाहे जो भी हो जाय लोकतंत्र नहीं टूटना चाहिए. स्थिति यह है क़ि आप इश्वर के विरुद्ध तो बात कर सकते हैं, लेकिंलोक्तंत्र के खिलाफ अगर आपने कुछ कह दिया तो आपकी खैर नहीं, सब आपको थू-थू करंगे, कठोरतम संसदीय भाषा में आपकी निंदा और भर्त्सना की जायेगी, संभव है शारीरिक रूप से भी आपको कष्ट पहुंचाया जाय. आप भारतीयता का विरोध कर सकते हैं,मानवता का विरोध कर सकते हैं,लेकिन लोकतंत्र का विरोध नहीं कर सकते. 
लोकतंत्र को लगभग भगवान् का दर्जा दे दिया गया है. जिस तरह अपनी जरूरतों और सुविधाओं के मद्देनजर हमने भगान को ढाल लिया है, उसी तरह लोकतंत्र को भी हमने अपने हिसाब से ढाल लिया है. जैसे बड़े से बड़ा अपराध और पाप करने में भगवान् बाधक नहीं बनता, उसी तरह घोरतम अलोकतांत्रिक कार्य करने में भी लोकतंत्र बाधक नहीं बनता. लोकतंत्र की ऐसी की तैसी कर डालिए  कोई बात नहीं, बस लोकतंत्र का विरोध मत कीजिये. लोकतंत्र का बाजा बजाते हुए लोकतंत्र का बाजा बजा डालिए, कोई कुछ नहीं बोलेगा. 
लोकतंत्र की  यह जो अपराजेय स्थिति है आखिर इसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं ? जाहिर है जिन्हें इससे फायदा है उन्ही को लोकतंत्र की ज्यादा फिक्र है. विपक्स की ओर से और सरकार की ओर से भी सैकड़ों बार यह कहा जा चुका है क़ि विकास कार्यों का लाभ जनता तक नहीं पहुँच रहा है. सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ से की गयी यह बयानबाजी अगर लफ्फाजी नहीं है तो यह स्पष्ट क़ि देश की आम जनता को लोकतंत्र से कोई फायदा नहीं है. फिर वे कौन लोग हैं जिन्हें लोकतंत्र फ़ायदा है ? 
इतिहास की किताबों में हमें पढ़ाया गया है क़ि शाहजहाँ का शासनकाल भारत का स्वर्ण युग  था. उसके बाद कोई स्वर्णयुग नहीं आया और शाहजहाँ के शासनकाल में भारत में लोकतंत्र नहीं था. जॉब बिना लोकतंत्र के स्वर्णयुग हो सकता है, तो फिर फिर लोकतंत्र के लिए इतनी मारामारी क्यों ? इसी तरह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल के बारे में यह मशहूर है क़ि उस जमाने में लोग घरों के दरवाजों पर ताले नहीं लगाते थे, अर्थात चोरी-डकैती, लूट-खसोट की घटनाएं नहीं होती थीं, जबकि आज हालत यह है क़ि दिन-दहाड़े व्यस्त चौराहे पर तमंचा दिखा कर बदमाश लाखों  लूट ले जाते हैं. जब बिना लोकतंत्र के शान्ति-सुरक्षा की इतनी चौकस व्यवस्था हो सकती थी तो लोकतंत्र के लिए आज इतनी है-हाय-हाय  क्यों ? 
जाहिर है क़ि यहाँ तक पढ़ लेने के बाद कोई भी मुझे लोकतंत्र विरोधी समझेगा. सवाल किसी तंत्र विशेष के समर्थन या विरोध का नहीं है, सवाल यह है क़ि हमारी जरूरतें और प्राथमिकताएं क्या हैं. 
बात जारी रहेगी.                   

1 comment:

  1. उत्तम प्रस्तुति...

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