सोचना जरूरी है (३)
लोकतंत्र पर सोचना जारी रखते हुए आइये इसके कुछ और पहलुओं पर विचार किया जाय . लोकतंत्र या किसी भी तंत्र के किसी भी पहलू पर विचार करने से पहले हमें एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी तंत्र, दर्शन, सिद्धांत या विचारधारा या धर्म स्वयं मनुष्य से ऊपर नहीं होता. सबसे ऊपर मनुष्य और उसकी प्राकृतिक स्वछान्द्ता और स्वतन्त्रता का स्थान है. अगर कोई तंत्र, धर्म या सिद्धांत मनुष्य को उसके इस सर्वोच्च स्थान से हटाने का प्रयास करता है,तो वह तंत्र,धर्म या सिद्धांत गलत है और उसका विरोध किया जाना चाहिए .
विरोध एक ऐसा शब्द है जिसे लोकतंत्र का मूलमंत्र कहा जा सकता है. दुनिया भर के लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यही बताई जाती है की लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति अपना मत व्यक्त करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होता है. लोकतंत्र बहुमत पर आधारित होता है, लेकिन अगर कोई बहुमत के विरोध में अपना मत व्यक्त करता है तो उसे ऐसा करने दिया जाता है और उसके द्वारा व्यक्त किये गए विरोध को पूरा सम्मान दिया जाता है. लेकिन क्या वाकई लोकतंत्र में ऐसा होता है ? लोकतंत्र कोई अत्याधुनिक शासन प्रणाली नहीं है,यह लगभग राजतन्त्र जितनी ही प्राचीन प्रणाली है. हम अगर लोकतंत्र के हजारों साल के इतिहास पर गौर करें तो हम पायेंगे कि इसका इतिहास भी राजतंत्र की तरह अन्याय, अत्याचार, शोषण,उत्पीडन,षडयंत्र और भ्रष्टाचार जैसी गन्दगिओ भरा पडा है. और तो और लोकतंत्र विरोध के स्वर को भी बर्दाश्त नहीं करता. हजारों साल से दुनिया भर के लोकतन्त्रों में बार-बार विरोध का गला घोटा गया है.
महान ग्रीक दार्शनिक सुकरात (साक्रेतिस) का नाम हम सभी जानते हैं. दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में सुकरात के पांडित्य और दर्शन की प्रशंसा की जाती है. इन लोकतांत्रिक देशों के कालेजों और विश्वविद्यालोयों में निर्धारित पाठ्यक्रम के अंतर्गत सुकरात का दर्शन पढ़ाया जाता है. लेकिन खुद लोकतंत्र ने सुकरात जैसे महान दार्शनिक के साथ क्या सलूक किया था ? सुकरात संख्याबल के आधार पर बहुमत की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते थे. सुकरात के उन्मुक्त विचारों से तत्कालीन एथेंस के लोकतंत्र के युवक और बुद्धिजीवी बुरी तरह प्रभावित थे. एथेंस लोकतंत्र बहुमत दल के नेता एनितास का बेटा भी सुकरात का शिष्य बन गया था. और अपने पिता की कार्यशैली का खुलकर विरोध करता था. एथेंस में बहुमत शासन के अन्याय और उत्पीडन के खिलाफ अल्पमत वालों ने विद्रोह कर दिया था. बहुमत ने अल्पमत के विद्रोह को कुचल दिया, लेकिन सुकरात को पकड़ लिया. सुकरात पर आरोप लगा कि वह एथेंस के लोकतंत्र के खिलाफ युवा पीढी को भड़का रहे थे. एथेंस की लोकतांत्रिक सरकार ने सुकरात जैसे सर्वकालिक महान दार्शनिक और विचारक को मृत्युदंड दिया और सुकरात ने, रोते-बिलखते अपने शिष्यों के सामने, बिना चेहरे पर कोई शिकन लाये जल्लाद द्वारा दिया गया जहर का प्याला अपने हाथों से उठाया और जहर पीकर मौत की बाहों में समा गए. सुकरात के शिष्यों को लोकतंत्र की महानता के बारे में पता था, इसलिए सरकारी अधिकारिओं और कर्मचारिओं को रिश्वत खिलाकर उन्होंने सुकरात को जेल से भगा ले जाने का इंतजाम कर लिया था. लेकिन महान सुकरात को इस तरह भाग जाना, हार जाना मंजूर नहीं था. उन्होंने मृत्युदंड स्वीकार कर मर जाना बेहतर समझा. वह विरोध व्यक्त करने के अपने प्राकृतिक अधिकार को कुंठित करने को तैयार नहीं हुए और एक लोकतांत्रिक देश में जहां विरोधी विचार को सम्मान देने का ढोल पीटा जाता था, उन्हें लोकतंत्र से असहमत होने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी.
सुकरात की यह कहानी करीब २३०० साल पुरानी है, लेकिन आज २३०० साल बाद भी महान लोकतांत्रिक देशों में विरोध के स्वर को कुचलने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. कहने का मतलब यह क़ि महज इसलिए क़ि किसी देश ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया हुआ है, वह देश महान नहीं हो जाता. १५ अगस्त १९४७ को आजाद होने से पहले हम जिस देश के गुलाम थे, उस देश को दुनिया के महानतम लोकतन्त्रों में से एक माना जाता है. जब हम गुलाम थे, तब भी उस देश में लोकतंत्र था और आज भी है. उसी महान लोकतंत्र ने हमें जालिंवाला नरसंहार जैसा मानवता के इतिहास को शर्म से झुका देनेवाला उपहार दिया. उसी महान लोकतंत्र ने औपनिवेशिक बंधन से मुक्ति चाहनेवाले हजारों भारतीयों को फांसी पर लटकाया. जो तंत्र मुक्त हवा में सांस लेने के दुसरे के नैसर्गिक अधिकार का सम्मान नहीं करता, वह तंत्र श्रेष्ठ और महान कैसे हो सकता है? हमने आज उसी ब्रिटेन की लोकतांत्रिक पद्धति को ही मूल रूप से अपनाया हुआ है, जिसने हमें गुलाम बनाया, जिसने हमारे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक ढाँचे को छिन्न -भिन्न कर दिया, जिसने हम पर अनगिनत जुल्म ढाये, हमें गोलिओं से छलनी किया, हमें फांसी पर लटकाया और बाज मौको पर हमें कुत्ते से भी बदतर समझा.
कोई अत्याचारी और उत्पीड़क जब अपनी मजबूरिओं के कारण हमें अपने अत्याचार और उत्पीडन से मुक्त कर दे, तो क्या मुक्त होकर हम उसी अत्याचारी और उत्पीड़क की नक़ल करेंगे? लोकतंत्र एक पद्धति है. कोई भी पद्धति न तो श्रेष्ठ होती है और न ही महान होती है. किसी राजा के अच्छे और प्रजापालक होने में राजतंत्र की कोई महानता नहीं होती. लोकतंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है. एक पद्धति के रूप में लोकतंत्र चले, कोई बात नहीं, लेकिन लोकतंत्र को महिमामंडित करना और उसकी महानता का डंका बजाना कतई अनावश्यक और अश्लील है. लोकतंत्र के न तो कोई स्थापित मूल्य हैं और न मर्यादा, और अगर है तो कोई हमें बता दे कि ब्रिटेन ने भारत तथा अपने अन्य गुलाम देशों के साथ जो कुछ किया, वह लोकतंत्र के किन मूल्यों और मर्यादाओं के दायरे में आता है?
Very thoughtful. I am waiting for your next article on this subject.
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