Wednesday, February 23, 2011

सोचना जरूरी है (३)
लोकतंत्र पर सोचना जारी रखते हुए आइये इसके कुछ और पहलुओं पर विचार किया जाय . लोकतंत्र या किसी भी तंत्र  के किसी भी पहलू पर विचार करने से पहले हमें एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी तंत्र, दर्शन, सिद्धांत या विचारधारा या धर्म स्वयं मनुष्य से ऊपर नहीं होता. सबसे ऊपर मनुष्य और उसकी प्राकृतिक स्वछान्द्ता   और स्वतन्त्रता का स्थान है. अगर कोई तंत्र, धर्म या सिद्धांत मनुष्य को उसके इस सर्वोच्च स्थान से हटाने का प्रयास करता है,तो वह तंत्र,धर्म या सिद्धांत गलत है और उसका विरोध किया जाना चाहिए . 
विरोध एक ऐसा शब्द है जिसे लोकतंत्र का मूलमंत्र कहा जा सकता है. दुनिया भर के लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यही बताई जाती है की लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति अपना मत व्यक्त करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होता है. लोकतंत्र बहुमत पर आधारित होता है, लेकिन अगर कोई बहुमत के विरोध में अपना मत व्यक्त करता है तो उसे ऐसा करने दिया जाता है और उसके द्वारा व्यक्त किये गए विरोध को पूरा सम्मान दिया जाता है. लेकिन क्या वाकई लोकतंत्र में ऐसा होता है ? लोकतंत्र कोई अत्याधुनिक शासन प्रणाली नहीं है,यह लगभग राजतन्त्र जितनी ही प्राचीन प्रणाली है. हम अगर लोकतंत्र के हजारों साल के इतिहास पर गौर करें तो हम पायेंगे कि इसका इतिहास भी राजतंत्र की तरह अन्याय, अत्याचार, शोषण,उत्पीडन,षडयंत्र  और भ्रष्टाचार जैसी गन्दगिओ भरा पडा है. और तो और लोकतंत्र विरोध के स्वर को भी बर्दाश्त नहीं करता. हजारों साल से दुनिया भर के लोकतन्त्रों में बार-बार विरोध का गला घोटा गया है. 
महान ग्रीक दार्शनिक सुकरात (साक्रेतिस) का नाम हम सभी जानते हैं. दुनिया भर के लोकतांत्रिक  देशों में सुकरात के पांडित्य और दर्शन की  प्रशंसा  की जाती है. इन लोकतांत्रिक देशों के कालेजों और विश्वविद्यालोयों में निर्धारित पाठ्यक्रम के अंतर्गत सुकरात का दर्शन पढ़ाया जाता है. लेकिन खुद लोकतंत्र ने सुकरात जैसे महान दार्शनिक के साथ क्या सलूक किया था ? सुकरात संख्याबल के आधार पर बहुमत की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते थे. सुकरात के उन्मुक्त विचारों से तत्कालीन एथेंस के लोकतंत्र के युवक और बुद्धिजीवी बुरी तरह प्रभावित थे. एथेंस लोकतंत्र बहुमत दल के नेता एनितास  का बेटा भी सुकरात का शिष्य बन गया था. और अपने पिता की कार्यशैली का खुलकर विरोध करता था.  एथेंस में बहुमत शासन के अन्याय और उत्पीडन के खिलाफ अल्पमत वालों ने विद्रोह  कर दिया था. बहुमत ने अल्पमत के विद्रोह को कुचल दिया, लेकिन सुकरात को  पकड़ लिया. सुकरात पर आरोप लगा कि वह एथेंस के लोकतंत्र के खिलाफ युवा पीढी को भड़का रहे थे. एथेंस की लोकतांत्रिक सरकार ने सुकरात जैसे सर्वकालिक महान दार्शनिक और विचारक को मृत्युदंड दिया और सुकरात ने, रोते-बिलखते अपने शिष्यों के सामने, बिना चेहरे पर कोई शिकन लाये जल्लाद द्वारा दिया गया जहर का प्याला अपने हाथों से उठाया और जहर पीकर मौत की बाहों में समा गए. सुकरात के शिष्यों को लोकतंत्र की महानता के बारे में पता था, इसलिए सरकारी अधिकारिओं और कर्मचारिओं को रिश्वत खिलाकर उन्होंने सुकरात को जेल से भगा ले जाने का इंतजाम कर लिया था. लेकिन महान सुकरात को  इस तरह भाग जाना, हार जाना मंजूर नहीं था. उन्होंने मृत्युदंड स्वीकार कर मर जाना बेहतर समझा. वह विरोध व्यक्त करने के अपने प्राकृतिक अधिकार को कुंठित करने को तैयार नहीं हुए और एक लोकतांत्रिक देश में जहां विरोधी विचार को सम्मान देने का ढोल पीटा जाता था, उन्हें लोकतंत्र से असहमत होने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी.
सुकरात की यह कहानी करीब २३०० साल पुरानी है, लेकिन आज २३०० साल बाद भी महान लोकतांत्रिक देशों में विरोध के स्वर को कुचलने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. कहने का मतलब यह क़ि महज इसलिए क़ि किसी देश ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया हुआ है, वह देश महान नहीं हो जाता. १५ अगस्त १९४७ को आजाद होने से पहले हम जिस देश के गुलाम थे, उस देश को दुनिया के महानतम लोकतन्त्रों में से एक माना जाता है. जब हम गुलाम थे, तब भी उस देश में लोकतंत्र था और आज भी है. उसी महान लोकतंत्र ने हमें जालिंवाला नरसंहार जैसा मानवता के इतिहास को शर्म से झुका देनेवाला उपहार दिया. उसी महान लोकतंत्र ने औपनिवेशिक बंधन से मुक्ति चाहनेवाले हजारों भारतीयों को फांसी पर लटकाया. जो तंत्र मुक्त हवा में सांस लेने के दुसरे के नैसर्गिक अधिकार का सम्मान नहीं करता, वह तंत्र श्रेष्ठ और महान कैसे हो सकता है? हमने आज उसी ब्रिटेन की लोकतांत्रिक पद्धति को ही मूल रूप से अपनाया हुआ है, जिसने हमें गुलाम बनाया, जिसने हमारे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक ढाँचे को छिन्न -भिन्न कर दिया, जिसने हम पर अनगिनत जुल्म  ढाये, हमें गोलिओं से छलनी किया, हमें फांसी पर लटकाया और बाज मौको पर हमें कुत्ते से भी बदतर समझा. 
कोई अत्याचारी और उत्पीड़क जब अपनी मजबूरिओं के कारण हमें अपने अत्याचार और उत्पीडन से मुक्त कर दे, तो क्या मुक्त होकर हम उसी अत्याचारी और उत्पीड़क की नक़ल करेंगे? लोकतंत्र एक पद्धति है. कोई भी पद्धति न तो श्रेष्ठ होती है और न ही महान होती है. किसी राजा के अच्छे और प्रजापालक होने में राजतंत्र की कोई महानता नहीं होती. लोकतंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है. एक पद्धति के रूप में लोकतंत्र चले, कोई बात नहीं, लेकिन लोकतंत्र को महिमामंडित करना और उसकी महानता का डंका बजाना कतई अनावश्यक और अश्लील है. लोकतंत्र के न तो कोई स्थापित मूल्य हैं और न मर्यादा,  और अगर है तो कोई हमें बता दे कि ब्रिटेन ने भारत तथा अपने अन्य गुलाम देशों के साथ जो कुछ किया, वह लोकतंत्र के किन मूल्यों और मर्यादाओं के दायरे में आता है?                    

Friday, February 18, 2011

सोचना जरूरी है(२)
हमने सोचने की जरूरत पर बल दिया है, क्योंकि हमारा मानना है क़ि किसी ज़िंदा आदमी के लिए, किसी ज़िंदा कौम के लिए सोचना निहायत जरूरी है. सोचने से हमारा आशय हलके-फुल्के, फौरी या सतही ढंग से सोचने से नहीं है. हमारे अन्तःस्थल  के गहनतम बिंदु पर दिल और दिमाग दोनों एक जगह आकर मिलते हैं और यहाँ से जो निर्णय लिया जाता है उसके गलत होने की संभावना बहुत कम रहती है. सोचने के मामले में सिर्फ दिल या सिर्फ दिमाग से काम लेने पर फैसले हमेशा गलत लिए जायेंगे. हम दिल और दिमाग के इसी अंतरतम स्थल से सोचने की बात कर रहे हैं. 
अब सवाल यह  है क़ि सोचा क्या जाय . तो चलिए शुरू करने के लिए हम लोकतंत्र  पर सोचते हैं. लोकतंत्र पर सोचना इसलिए भी मौजू रहेगा, क्योंकि हमारे नेता बात-बात पर, हर बात पर लोकतंत्र की दुहाई देते हैं. पिछले पचास वर्षों में शायद एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब हमारा महान लोकतंत्र संकट में न रहा हो. अगर सरकार आपकी है तो हमें लोकतंत्र पर संकट मंडराता दिखाई देने लगता है और अगर सरकार हमारी है तो आपको लोकतंत्र संकट में दिखाई देने लगता है. लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा की बात की जाती है, लोकतांत्रिक मूल्य और परम्परा की बात की जाती है. 
लगता है लोकतंत्र से अधिक महत्वपूर्ण कुछ और है ही नहीं. चाहे जो भी हो जाय लोकतंत्र नहीं टूटना चाहिए. स्थिति यह है क़ि आप इश्वर के विरुद्ध तो बात कर सकते हैं, लेकिंलोक्तंत्र के खिलाफ अगर आपने कुछ कह दिया तो आपकी खैर नहीं, सब आपको थू-थू करंगे, कठोरतम संसदीय भाषा में आपकी निंदा और भर्त्सना की जायेगी, संभव है शारीरिक रूप से भी आपको कष्ट पहुंचाया जाय. आप भारतीयता का विरोध कर सकते हैं,मानवता का विरोध कर सकते हैं,लेकिन लोकतंत्र का विरोध नहीं कर सकते. 
लोकतंत्र को लगभग भगवान् का दर्जा दे दिया गया है. जिस तरह अपनी जरूरतों और सुविधाओं के मद्देनजर हमने भगान को ढाल लिया है, उसी तरह लोकतंत्र को भी हमने अपने हिसाब से ढाल लिया है. जैसे बड़े से बड़ा अपराध और पाप करने में भगवान् बाधक नहीं बनता, उसी तरह घोरतम अलोकतांत्रिक कार्य करने में भी लोकतंत्र बाधक नहीं बनता. लोकतंत्र की ऐसी की तैसी कर डालिए  कोई बात नहीं, बस लोकतंत्र का विरोध मत कीजिये. लोकतंत्र का बाजा बजाते हुए लोकतंत्र का बाजा बजा डालिए, कोई कुछ नहीं बोलेगा. 
लोकतंत्र की  यह जो अपराजेय स्थिति है आखिर इसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं ? जाहिर है जिन्हें इससे फायदा है उन्ही को लोकतंत्र की ज्यादा फिक्र है. विपक्स की ओर से और सरकार की ओर से भी सैकड़ों बार यह कहा जा चुका है क़ि विकास कार्यों का लाभ जनता तक नहीं पहुँच रहा है. सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ से की गयी यह बयानबाजी अगर लफ्फाजी नहीं है तो यह स्पष्ट क़ि देश की आम जनता को लोकतंत्र से कोई फायदा नहीं है. फिर वे कौन लोग हैं जिन्हें लोकतंत्र फ़ायदा है ? 
इतिहास की किताबों में हमें पढ़ाया गया है क़ि शाहजहाँ का शासनकाल भारत का स्वर्ण युग  था. उसके बाद कोई स्वर्णयुग नहीं आया और शाहजहाँ के शासनकाल में भारत में लोकतंत्र नहीं था. जॉब बिना लोकतंत्र के स्वर्णयुग हो सकता है, तो फिर फिर लोकतंत्र के लिए इतनी मारामारी क्यों ? इसी तरह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल के बारे में यह मशहूर है क़ि उस जमाने में लोग घरों के दरवाजों पर ताले नहीं लगाते थे, अर्थात चोरी-डकैती, लूट-खसोट की घटनाएं नहीं होती थीं, जबकि आज हालत यह है क़ि दिन-दहाड़े व्यस्त चौराहे पर तमंचा दिखा कर बदमाश लाखों  लूट ले जाते हैं. जब बिना लोकतंत्र के शान्ति-सुरक्षा की इतनी चौकस व्यवस्था हो सकती थी तो लोकतंत्र के लिए आज इतनी है-हाय-हाय  क्यों ? 
जाहिर है क़ि यहाँ तक पढ़ लेने के बाद कोई भी मुझे लोकतंत्र विरोधी समझेगा. सवाल किसी तंत्र विशेष के समर्थन या विरोध का नहीं है, सवाल यह है क़ि हमारी जरूरतें और प्राथमिकताएं क्या हैं. 
बात जारी रहेगी.                   

Tuesday, February 15, 2011

सोचना जरूरी है
आदमी सोच सकता है,बहुत गहराई से सोच सकता है. जानवर ऐसा नहीं कर पाते. अगर आदमी सोचना बंद कर दे या एकदम कम कर दे तो क्या आदमी भी जानवर जैसा हो जाएगा? बात सोचने की है. सोच पाना और सोच पाना इन दोनों में से कौन सी स्थिति बेहतर है ? दरअसल सोच पाने की अपनी क्समता  पर हमें कुछ ज्यादा ही नाज है. यह जरूरी नहीं कि सोचने कि क्समता होने से ही कोई अपने आप श्रेष्ठ हो जाता हो. आखिर सोचने की क्समता रखनेवाला मनुष्य ही तो बलात्कार भी करता है,अन्य और भी अनेक अपराध सोच-समझ कर ही करता है,जबकि इसके विपरीत  सोचने कि क्समता से वंचित कोई भी जानवर कभी सोच-समझ  कर कोई अपराध नहीं करता. 
फिर भी सोचना जरूरी है. वास्तविकता यह है कि अगर आदमी सोचना बंद कर दे तो उसकी स्थिति जानवर से भी बदतर हो जाएगी. इस बदतर स्थिति को प्राप्त होने से हम बचे रहें इसके लिए जरूरी है कि हम सोचना बंद करें. बुरा काम करने के लिए भी सोचना पड़ता है और अच्छा काम करने के लिए भी सोचना पड़ता है.
जो कुछ जैसा है उसे उसी रंग,रूप और स्वाद में ग्रहण और स्वीकार कर लेने से सोचने की क्समता कम हो जाती है. यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो एक पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति को समूल नष्ट कर सकती है. जो कुछ बाहर से  रहा है उसे छांट-काट-तराश कर,अपने माफिक बना कर हम अपना विकास कर सकते हैं, लेकिन उसे हूबहू आत्मसात कर लें तो हम अपना विनाश करेंगे,और आज यही हो रहा है. आग में हाथ डालने से हाथ जल जाएगा, इस जानकारी की पुष्टि करने के लिए आग में हाथ डालना जरूरी नहीं है. लेकिन सब कुछ आग की तरह सीधा-सच नहीं होता है, फिर आग-आग में भी फर्क होता है. इसलिए जाँच-परख लेने में कोई हर्ज नहीं है. 
लेकिन   इस सबके लिए सोचने की जरूरत है. जिस देश के लोगों ने सोचना बंद कर दिया या दूसरों के सोचने पर अपनी निर्भरता बढ़ा दी,इतिहास गवाह है कि ऐसे देशों ने बार-बार और  लम्बे काल खंड तक गुलामी का अपमान झेला.
सोचने    की जरूरत पर इतनी लम्बी भूमिका बाँधने के पीछे जाहिर कि मेरा कुछ इरादा भी है. इरादा और कुछ नहीं,सिर्फ सोचने का इरादा है. हम सोचें, आप सोचें. हम सबलोग मिलकर सोचें कि आज जो कुछ जैसा दिख रहा है ऐसा क्यों दिख रहा है? सोचने की लगभग बंद और मंद पड़ी प्रक्रिया को आइये हम फिर से जीवित करें. यह हमारी मजबूरी भी है. अपने मस्तिस्क को आराम देकर दूसरो के सोचने से अपना काम चलाने खतरनाक प्रवृत्ति के लक्षण दिखाई पड़ने लगे हैं. .यह प्रवृत्ति बढ़ती गयी तो तो फिर दूसरे ही हमारे लिए सोचा करेंगे और हमारी भूमिका सिर्फ हुकम्बरदार की रह जाएगी  .---------तरित कुमार             



Sunday, December 12, 2010

Thursday, November 25, 2010

बैठक के सभी मित्रों को नमस्कार. मैंने अपना ब्लॉग बना लिया है.पता नोट कर लें.

Tuesday, November 23, 2010